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जेहाद, नक्सल और अब धर्मांतरण

बेबाक कलम
बेबाक कलम
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कहते हैं कि जब पेट में आग लगती है तो उस आग में अच्छा-बुरा, जाति- धर्म सब कुछ जल कर नष्ट हो जाता है। और वैसे भी इस देश में दो जून की रोटी का बमुश्किल जुगाड़ कर पाने वाले लोगों को जाति धर्म, घाटा मुनाफा से कोई खास मतलब नहीँ होता। उन्हें फ़िक्र होती है तो सिर्फ इतनी की शाम ढलने से पहले वो अपने और अपने परिवार के लोगों के पेट भरने का इंतज़ाम कर लें। वैसे तो इस लोकतंत्र में इनका होना न होना बराबर ही है । इनके लिए न कोई अल्लाह है और न कोई राम। जो इनकी भूख मिटाने के लिए दो वक्त की रोटी और तन ढकने के लिए कपड़े का इंतज़ाम कर दे वही इनका भगवान् है। कहते हैं की हर चीज़ की एक कीमत होती है , अगर दाम सही लग जाए तो हर चीज़ खरीदी जा सकती है। इंसानों की भी कीमत है और अब धर्म की भी और मजहब की भी, सब बिकता है बस खरीदने वाला चाहिए। और वैसे भी अब व्यवसाइयों की कमी नहीँ है शिक्षा बिकती है ,चिकित्सा बिकती है , ईमान बिकता है और अब धर्म भी। व्यवसाइयों को मालूम है की किसकी कितनी कीमत है और वो कैसे बिकेगा। जो खुद के लिए बुनियादी ज़रूरतें भी नहीं जुटा पाते हैं वो लोग आलीशान कोठियों में लगने वाली ईंटों की तरह काम में आते हैं। वो अपने लिए भले ही हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी दो वक्त का खाना न जुटा पाते हों पर पर ऐसे लोगों का उपयोग जानने वाले लोग इनके ही दम पर सरकार बन जाते हैं। कड़ाके की ठंड में कंपकपाते लोगों के पेट में लगी भूख की आग बुझाने का ख्याल भले न आये पर उस भूख की आग पर राजनीति की रोटियाँ सेकने का हुनर जनता के कथित ठेकेदारों को बखूबी आता है।
देश पहले ही बाहर से जेहाद और अंदर से नक्सल से लहूलुहान है। चाहे देश के अंदर जेहाद के नाम पर पल रहे आतंकी हों या आदिवासी इलाकों में जड़ें जमा चुके नक्सली। सभी को सिर्फ बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लालच भर से जोड़ लिया गया। कुछ दिनों पहले राहुल पण्डित की सलाम बस्तर पढ़ने के बाद मालूम हुआ था की नक्सलिओं को सिर्फ खाना , चिकित्सा और उनके बच्चों की शिक्षा के नाम पर ही जोड़ा जाता है। उन्हें नहीँ पता सही क्या है और क्या गलत। उनके लिए वही सही है जो उनकी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर दे। उनके कोई बड़े सपने नहीँ हैं, उन्हें मेहनत से डर नहीं लगता, उन्हें न आलिशान बंगलों की ख्वाहिश है और न महँगी गाड़ियों में घूमने का शौक। उन्हें बस दो जून की रोटी , बच्चों की शिक्षा और चिकित्सा चाहिए। जो उन्हें इतना भर दे दे बस वही उनके लिए भगवान् है। हाल ही में मुज्जफरनगर में हुए दंगो पर भी नज़र डालें तो पाएंगे कि हादसे के बाद सियासत शुरू हो गयी। मुस्लिम नेता और आतंक के सरगनाओं ने मासूम लोगों को उनके जख्म पर मरहम लगाने के साथ साथ आतंक का पाठ भी पढ़ा दिया। क्या हासिल करना चाहते हैं ये लोग नहीँ मालूम पर इतना पता है की ये मासूम लोगों को भटका कर सिर्फ अपने खौफनाक मंसूबे पूरे करने के लिए लोगों की जान से खेल रहे हैं। हाल ही में उठा धर्मान्तरण का मुद्दा भी इसी का एक हिस्सा है। लोग उन लोगों का उपयोग अपने लिए करना चाहते हैं जिनका होना न होना जनता के ठेकेदारों के लिए बराबर है।

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